
पर्यटन एवं धरोहर अंक 35 :-
अमरकंटक की पहाड़ियों में छिपी है मोक्ष और मुक्ति की शक्ति ,पर्यावण एवं धरोहर चिंतक
– बीरेन्द्र श्रीवास्तव की कलम से।
भारत भूमि धर्म और आध्यात्म की ऐसी भूमि है जिस पर राम और कृष्ण ने भी जन्म लिया है. ब्रह्मांड, निहारिका, आकाशगंगा और हमारे सौरमंडल की यात्रा की कड़ी में पृथ्वी की स्थिति एक रेत के कण से भी छोटी है और इसी पृथ्वी पर रहने वाला मानव अपने वैज्ञानिक अनुसंधान से नित नए संसाधन जुटाता रहता है जिसे हम आज के बाजारवाद की दुनिया मे मानव जीवन के लिए आवश्यक सुख सुविधा कहते हैं. सत्यता यह है कि प्रकृति ने मानव सहित समस्त जीव जंतुओं के जीवन को बचाए रखने के लिए पर्याप्त संसाधन इस पृथ्वी पर जुटा कर रख दिए हैं. लेकिन हम उस प्रकृति को आगामी पीढ़ी के लिए बचाए रखने की दिशा मे कमजोर दिखाई देते हैं. गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में कहा है-
“क्षिति जल पावक गगन समीरा पंच रचित अति अधम शरीरा”
अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि ,आकाश और वायु से बना यह शरीर अत्यंत साधारण शरीर है. जो नश्वर है और इसी मिट्टी में जन्म लेकर इसी मिट्टी में समाप्त हो जाएगा. आध्यात्मिक पक्ष के अनुसार इस अधम शरीर की आत्मा कभी समाप्त नहीं होती. यह एक देह से निकलकर दूसरी देह में प्रवेश कर जाती है. भागवत गीता में भगवान कृष्ण ने इसे विस्तार दिया है. यही कारण है कि ऋषि मुनि, संत महात्मा जीवन मृत्यु के आवागमन के मुक्ति का मार्ग ढूंढते हैं जिसे मोक्ष कहा जाता है. आत्मा परम ब्रह्म का अंश है और वापस परमब्रम्ह में विलीन हो जाना मोक्ष,मुक्ति का मार्ग है.
पर्यटन के क्रम में अध्यात्म और मोक्ष की कई कड़ियों को जोड़ने एवं इसके पक्षों को जानने अमरकंटक की पहाड़ियों में चलते हैं जहां नर्मदा, सोन और जोहिला जैसी नदियों का उद्गम स्थान है. छत्तीसगढ़ के नए गौरेला -पेंड्रा- मरवाही जिले की सीमाएं मध्य प्रदेश के अमरकंटक से जुड़ती हैं. जो समुद्र तल से लगभग 3400 फुट की ऊंचाई पर स्थित है. यह अमरकंटक जिसमें जैव विविधता सहित जड़ी बूटियां की कई प्रजातियां पाई जाती है. इन्हीं प्रजातियों में प्रमुख रूप से गुल बकावली का पौधा पाया जाता है इसके फूलों के अर्क से आंखों की रोशनी बढ़ती है. इसके कई किस्से भी अमरकंटक के साथ जुड़े हुए हैं जिसमें किस्सा गुलबकावली की 25 पेज की किताब साप्ताहिक हाट बाजार में छोटी-छोटी पुस्तक बेचने वालों के द्वारा 1950 से लेकर 1980 के दशक में खूब बेची जाती थी और ग्रामीण ग्राहकों से लेकर शहरी ग्राहकों तक बड़े चाव से लोग इसे पढ़ते थे. यह पुस्तक पूरी तरह अमरकंटक में गुलबकावली के फूल का पाया जाना और राजा- रानी की कहानियों और किवदंतियों सहित इतिहास का बयान करती है.
अमरकंटक की पहाड़ियों का ऊपरी हिस्सा चौरस है. जहां धीरे-धीरे अब एक नगर बस गया है कई आध्यात्मिक, धार्मिक , मंदिरों के अलावा यहां विद्यालय एवं आदिवासी संस्कृति से जुड़े बड़े शिक्षा संस्थान खुल चुके हैं, क्योंकि नर्मदा जैसी पवित्र नदी का उद्गम पर्यटकों को भारी संख्या को आकर्षित करता है. कई ग्रंथ एवं पुराणों में नर्मदा का महत्व इस स्थल को महत्वपूर्ण बनाता है. अमरकंटक नगर क्षेत्र और इसकी ऊंची पहाड़ियां मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले का हिस्सा है जबकि इसका 68% हिस्सा लगभग 3835 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र छत्तीसगढ़ में आता है अचानकमार अभ्यारण इसी अमरकंटक क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.
भारतवर्ष में मानव एवं जीव जंतुओं के जीवन के लिए आवश्यक नदियों को माता का दर्जा दिया गया है. देश भर की सैकड़ो नदियों में से सप्त नदियों को पवित्र नदियों की मान्यता दी गई है, जो हमारी अध्यात्मिक धरोहर कहलाती है. इसमें शामिल है गंगा, जमुना, सरस्वती, नर्मदा, गोदावरी, सिंध, कावेरी जैसी नदियां शामिल है. इन सब नदियों से भारत का बच्चा-बच्चा परिचित है चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो. इसके अलावा शिप्रा, ताप्ती एवं कृष्णा नदी को भी पवित्र नदियां माना जाता है. सामान्यतः नदियां जमीन के ढलान की ओर बढ़ती हुई अपना-अपना रास्ता स्वयं बना लेती है, जिसमें ज्यादातर नदियां पूर्व की ओर बहती हुई बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है लेकिन इसी अमरकंटक पर्वत पर निकलने वाली नर्मदा अकेली ऐसी नदी है जो पश्चिम की ओर बहती है. अपनी यात्रा में लगभग 1312 किलोमीटर की मध्य प्रदेश और गुजरात से यात्रा करते हुए यह आगे खंभात की खाड़ी में गिरकर अरब सागर में विलीन हो जाती है. इस नदी की एक और विशेषता है कि यह भारतवर्ष को उत्तर दक्षिण की पारंपरिक विभाजक रेखा के रूप में जोड़ती है. इसकी उत्पत्ति के संदर्भ में एक कथन है कि लाखों करोड़ों वर्ष पूर्व अरब सागर का एक हिस्सा पृथ्वी की विशिष्ट दरारों के कारण अमरकंटक तक फैला हुआ था जो समय के अनुसार धीरे-धीरे सिमटता गया और नदी बन गई. मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाकों से गुजरने वाली नर्मदा नदी का गोंड़ जाति के बीच बहुत ज्यादा महत्व है, क्योंकि गोंड़ पूर्वजों का कहना है कि नर्मदा गोंड़ पूर्वजों की पुत्री है और उसका जल पीकर उनकी सभ्यता और संस्कृति आगे बढ़ी है.
अमरकंटक पहाड़ियों से निकलने वाली नर्मदा के बारे में पवित्र सप्त नदियों में सर्वाधिक पवित्र नदियों में मान्यता प्राप्त नर्मदा का विवरण कई पुराणों में मिलता है. नर्मदा को पृथ्वी पर शिव की दिव्य द्रव्य शक्ति माना गया है. नर्मदा पुराण के अनुसार जब भगवान शिव ऋक्ष (मैकल) पर्वत पर हजारों वर्षों की तपस्या कर रहे थे तब भगवान शिव के पसीने की बूंदों से नर्मदा का जन्म हुआ है. इसलिए नर्मदा को शिवपुत्री भी कहा जाता है. उच्च महात्म के कारण नर्मदा की परिक्रमा का प्रावधान है अन्य नदियों का नहीं इस परिक्रमा में नर्मदा नदी को कहीं भी पार (लांघा) नहीं किया जाता.
वायु पुराण के अनुसार “प्रलयेषु न मृता सा नर्मदा” अर्थात नर्मदा को शिव जी ने अजर अमर होने का वरदान दिया है, इसलिए नर्मदा पृथ्वी पर प्रलय काल तक जीवित पुण्य नदी बनी रहेगी. ब्रम्हवैवर्त पुराण में कहा गया है कि गंगा, यमुना का महत्व एक समय विशेष के बाद अर्थात हजारों वर्षों में समाप्त हो जाएगा किंतु नर्मदा का जल पृथ्वी के प्रलय काल तक अपने पुण्य और महत्व के साथ यथावत जीवित रहेगा.
स्कंद पुराण में नर्मदा के जन्म और महत्व के बारे में महर्षि सूत जी ने कहा है की नर्मदा माघ शुक्ल सप्तमी तिथि को पृथ्वी पर प्रकट हुई है इसे नर्मदा जयंती के रूप में भी मनाया जाता है स्कंद पुराण में वर्णित है कि सरस्वती के जल में तीन दिनों में, यमुना के जल में सात दिनों में, तथा गंगा के जल में एक डुबकी लगा लेने से व्यक्ति पवित्र होता है, किंतु नर्मदा जल के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति पवित्र हो जाता है.
ऋषियों और तपस्वियों के आशीर्वाद से भरी नर्मदा अमरकंटक की ऊंचाइयों से जब निकलती है तब ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई नटखट नन्ही बालिका इन्हीं जंगलों पहाड़ों के बीच उंचाईयों पर खेल रही हो और अपनों के साथ लुका- छिपी खेलती कभी पत्थरों से निकलकर ऊपर बहने लगती है और कभी कुछ दूर आगे चलकर फिर पत्थरों में विलीन हो जाती है यह खेल काफी दूर तक चलता है. जहां इसे माई की बगिया तथा अन्य नाम से भी पुकारा जाता है. नर्मदा के इन्हीं रूपों को कवि की कलम ने अमरकंटक कविता में कुछ इस तरह बांधा है:- यहां पर नर्मदा बन बालिका, छिपती बुलाती है कहीं घुटनों पर चलती है कहीं पर दौड़ जाती है.
यहां पर नर्मदा और सोन मिलकर भी बिछड़ती है कोई पूरब को चलती है कोई पश्चिम को चलती है (बीरेन्द्र श्रीवास्तव,की चुनी हुई कविताएँ, पुस्तक से साभार)
वर्तमान नर्मदा का उद्गम प्रवाह स्थल पर एक कुंड बना दिया गया है जहां से नर्मदा का जल निरंतर बहता रहता है. इस क्षेत्र की पवित्रता एवं स्वच्छ रखने के प्रयास स्वरुप चहार दिवारी बनाकर घेर दिया गया है. यहाँ पर्यटकों की भारी हलचल इसके महत्व को प्रतिबिंबित करती है. इसी नर्मदा उद्गम के ऊपरी हिस्से में मां नर्मदा मंदिर एवं अन्य देवी देवताओं के मंदिर बने हुए हैं इस उद्गम क्षेत्र की चहार दीवारी के दक्षिणी द्वार से बाहर निकलने पर प्राचीन मंदिरों का समूह आकर्षित करता है. किवदंतियों के अनुसार इसे पांडव मंदिर का क्षेत्र कहा जाता है. मंदिरों के इस समूह को पर्यटन संभाग भोपाल ने विकसित करने की कोशिश की है और समय काल के पत्थरों पर इसे कलचुरी कालीन 11वीं शताब्दी का मंदिर निरूपित किया है, जो मछिंद्रनाथ मंदिर के नाम से भी जाना जाता है. मछिंद्रनाथ इस क्षेत्र में शैव संप्रदाय की एक शाखा के प्रवर्तक थे. इसी तरह पातालेश्वर मंदिर, शिव मंदिर और कर्ण मंदिर की स्थापना भी की गई है. पातालेश्वर मंदिर का निर्माण कलचुरी नरेश कर्ण देव (1041 से 1073) द्वारा बनवाया गया है. यहां के मंदिर का निर्माण और विन्यास यह प्रदर्शित करता है किइन मंदिरों का निर्माण कई चरणों में तथा कई दशाब्दियों तक चलता रहा है. रानी अहिल्याबाई होल्कर ने यहां के मंदिरों का समय-समय पर जीर्णोद्धार भी कराया है. इन मंदिरों की प्राचीनता हमारे सामने कई विचार रखती है. अलग-अलग स्थान पर इन मंदिरों का ठीक उद्गम स्थल के ऊपर निर्माण नर्मदा के अलग-अलग स्थलों से निकालने तथा भूमिगत चलने की प्रक्रिया को भी सैद्धांतिक रूप से प्रतिपादित करता है, क्योंकि यह सभी मंदिर तात्कालिक समय में नर्मदा उद्गम तट पर बने हुए थे. इन प्राचीन मंदिरों को संरक्षित कर उनके ऐतिहासिक दस्तावेज के साथ आम लोगों के लिए मनोहर प्रस्तुति के लिए पुरातत्व विभाग के भोपाल मंडल को बधाई देना न्यायोचित होगा.
इसी स्थल से आगे अरंडी नदी की धार और नर्मदा का मिलन होता है. कहते हैं कि नर्मदा खुद आगे बढ़कर अरंडी को अपने साथ लेकर उसका महत्व बढ़ाती है. इस घाट पर मृत्यु के बाद अस्थि विसर्जन एवं श्राद्ध कर्म के कार्य किए जाते हैं. यहां पर कई संत, साधु संन्यासियों ने आश्रम बनाकर अपनी-अपनी सिद्धि प्राप्त कीहै. यहाँ एक मंदिर बनाकर माता नर्मदा, माता गंगा और माता अरंडी की मूर्ति स्थापित की गई है. इस स्थान का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि स्कंद पुराण के अनुसार गंगा के किनारे श्राद्ध करने से मुक्ति मिलती है इसी प्रकार नर्मदा तट पर श्रद्धा और पिंडदान करने पर भी मुक्ति, और मोक्ष मिलता है. यहाँ अस्थि विसर्जन और पिंड दान के बाद गंगा की शरण में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि गंगा स्वयं गंगा दशहरा के दिन नर्मदा से मिलने आती है. शिव पुराण में इसका स्पष्ट उल्लेख है कि गंगा अपने भक्तों के पापों को साथ लेकर यहां तक आती है और नर्मदा से मिलकर भक्तों के पापों को नर्मदा में विसर्जित कर स्वयं पाप मुक्त होकर पुनः भक्तों के कष्ट निवारण और उन्हें पाप मुक्त करने के लिए वापस चली जाती है.
मध्य प्रदेश में बसी अमरकंटक की पहाड़ियों में मैकल तथा सतपुड़ा की पहाड़ियों और वन की श्रृंखला है जो छत्तीसगढ़ वन सीमा से प्रारंभ होकर मध्य प्रदेश की वन सीमा में प्रवेश करती है. छत्तीसगढ़ के पेंड्रा गौरेला मरवाही जिले के गौरेला से अचानकमार रोड में रेल लाइन पार करने के बाद दक्षिण दिशा में दाहिनी ओर एक मार्ग है जो दो तीन छोटे छोटे गांव से होकर अमरकंटक तक निकल जाता है. इसी मार्ग के अमरकंटक क्षेत्र में अमरेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना की गई है, जिसे ज्योतिर्लिंग अमलेश्वर अर्थात ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग का अंश कहा जाता है. लगभग 20 फीट ऊंचे शिवलिंग पर जलाभिषेक करने के लिए पीछे सीढ़ियाँ बनी हुई है. इन्ही सीढियों के माध्यम से चढ़कर ऊंचाई पर पहुंचा जाता है और भगवान शिव के इस ऊंचे शिवलिंग पर जलाभिषेक किया जाता है. यहीं पर कुछ दूरी पर जोहिला नदी का उद्गम है जहाँ श्राद्ध कर्म भी किए जाते है. यहाँ से आगे कुछ दूरी के बाद मध्य प्रदेश का वन मंडल का क्षेत्र प्रारंभ हो जाता है.
अमर कंटक पहुंचने के लिए आपको पेंड्रारोड रेलवे स्टेशन उतरना होगा, जो बिलासपुर कटनी मार्ग मे अनूपपुर जंक्शन से पहले पड़ता है. इसी तरह सड़क मार्ग से जाने के लिए गौरेला पेंड्रा मरवाही के जिला मुख्यालय पहुंचना होगा. यहां से टैक्सी बस की सुविधा यात्रियों को अमरकंटक तक जाने के लिए मिल जाती है. इससे आप कम खर्च में पवित्र नर्मदा उद्गम अमरकंटक पहुंच सकते है. पहले गांव से समूह में लोग नर्मदा दर्शन के लिए निकलते थे और रेल यात्रा में अपने साथ भोजन व्यवस्था लेकर चलते हुए रेल के डब्बे में माता नर्मदा के स्तुति एवं भजन कीर्तन के साथ उन्हें याद करते थे. यह दृश्य उनके धार्मिक भावनाओं को तथा नर्मदा तीर्थ के महत्व को प्रदर्शित करता था.
समय के बदलाव के साथ अब लोग अपने वाहन या टैक्सी से यात्रा करने लगे हैं. गौरेला से दक्षिण दिशा में निकलकर अचानकमार अभयारण्य मार्ग पर रेलवे लाइन पार करने के बाद सड़क के दाहिनी ओर अमरेश्वर महादेव मंदिर मार्ग है जो लगभग 25 किलोमीटर की यात्रा के बाद आपको अमरकंटक की पहाड़ियों तक पहुंचा देगा. इस मार्ग से आप अमरकंटक मे सबसे पहले जैन सम्प्रदाय के विशाल जैन मंदिर के दर्शन करके अमरकंटक में प्रवेश करते हैं. गौरेला से दक्षिण दिशा मे निकलने के बाद अचानकमार अभयारण्य मार्ग से सीधे क्योंंची पहुंचकर दाहिनी ओर पश्चिम दिशा की ओर पहाड़ी पर चढ़ना प्रारंभ करते हैं और कबीर चबूतरा होते हुए अमरकंटक तक पहुंचते हैं. यह दूरी लगभग 40 किलोमीटर है दोनों ही मार्ग में कबीर चौरा एवं अमरेश्वर मंदिर छत्तीसगढ़ वन मंडल की सीमा रेखा का क्षेत्र है. आप अपनी यात्रा को अमरेश्वर महादेव मंदिर मार्ग से प्रारंभ कर अमरकंटक की पवित्र यात्रा के बाद लौटने के लिए कबीर चौरा और क्योंंची मार्ग से वापस आ सकते हैं. क्योंची मार्ग में आपके विश्राम ,जलपान तथा भोजन की अच्छी व्यवस्था के साथ कुछ होटल मौजूद है. जो आपकी यात्रा को आसान और आरामदायक बना देंगे.
धर्म अध्यात्म और प्रकृति की जैव विविधता के विभिन्न प्रजातियों के जड़ी बूटियां के प्रभाव की शुद्ध हवा एवं ईश्वरीय आराधना स्थल का यह मनोरम नर्मदा तट आपको आशीर्वाद देने के लिए बुला रहा है. एक बार अमरकंटक की यात्रा करें और मां नर्मदा का आशीर्वाद सहित अमरेश्वर महादेव पर जलाभिषेक का पुण्य प्राप्त करें.
निश्चित मानिए पवित्र सलिला नर्मदा का जल और आशीर्वाद आपको मुक्ति और मोक्ष का रास्ता दिखाएगा. अंत में इसी अमरकंटक के लिए कुछ
पंक्तियां —
कभी आओ यहां पर सोन की ऊंचाइयां देखो
धरा पर गिरती नदियों की यहां परछाईंयां देखो
(“बीरेन्द्र श्रीवास्तव की चुनी हुई कविताएं” पुस्तक से साभार)
बस इतना ही – फिर मिलेंगे अगले पड़ाव पर
राजेश सिन्हा 8319654988