देवाडांड़ “कोटेश्वर महादेव मंदिर मंगौरा जहाँ के हर पत्थर में भोले बाबा का तिलस्मी वास है”
पर्यावरण एवं पर्यटन केंद्र – 23
लेखन एवं प्रस्तुति – बीरेंद्र कुमार श्रीवास्तव
ऐतिहासिक गाथाओं की कहानी पढ़ने सुनने में काफी रोचक होती है क्योंकि इसमें अपनी सांस्कृतिक आध्यात्मिक एवं सामाजिक परिवेश के वे पन्ने शामिल होते हैं जो सैकड़ो हजारों साल बाद भी अपनी पहचान के साथ गर्व से पढ़े जाते हैं. हजारों साल पुराने सांस्कृतिक जगत के 8000 साल पुराने सभ्यता के धरोहर की अपनी पहचान लिए हमारा देश भारतवर्ष इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं से भरा हुआ है जिसमें 2500 ईसवी पूर्व की हड़प्पा संस्कृति 1500 ईसवी पूर्व की आर्य संस्कृति के दस्तावेज प्रमाणीकरण के साथ साथ 486 एवं 468 ईसवी पूर्व के बौद्ध एवं जैन धर्म के उदय होने के प्रामाणिक दस्तावेज उत्खनन से प्राप्त मंदिर शिलालेख एवं सिकंदर के आक्रमण जैसी ऐतिहासिक घटनाएं शामिल है.
भारतीय संस्कृति दुनिया की प्राचीन संस्कृतियों में से एक है यूनान, रोम, मिस्त्र और चीन की संस्कृति के साथ-साथ भारत का नाम भी पुरानी संस्कृतियों में शामिल है भारतीय संस्कृति बदलते समय के साथ अपने आप को परिष्कृत करती रही है. सिंधु घाटी की संस्कृति से प्रारंभ होने वाली भारतीय संस्कृति उत्तर से दक्षिण भारत के गांव तक अपनी विशिष्ट रीति रिवाज पहनावे एवं पाक शाला तथा मंदिर निर्माण शैली और आस्था के लिए जानी जाती है. जीवन जीने की शैली में शहरी एवं ग्रामीण जनजीवन की परिभाषा बदलती रही है ग्रामीण जनजीवन में ठंडी बयार की खुली शुद्ध हवा (ऑक्सीजन) लेकर जीने की परंपरा है वही शहरों में एयर कंडीशन कमरों में बंद कर स्वयं को सुखी अनुभव करते हैं. इसी तरह तीज त्यौहार शादी विवाह जैसे बड़े कार्य एक दूसरे के आपसी पारिवारिक सहयोग से कार्य पूर्ण कर लेने की आत्मिक संतोषकी परम्परा ग्रामीण परिवेश का निर्माण करती है वहीं शहरों मे आज दिखावा की परम्परा खर्चीली एवं सीमा से अधिक खर्च की संस्कृति हमें कर्ज संस्कृति की ओर ढकेल रही है. चिंता की बात यह है की धीरे-धीरे शहरी संस्कृति गांवो को भी अपनी गिरफ्त में ले रही है. बदलाव की यह परंपरा हमारी भारतीय चिंतन के विपरीत है. हम गांव के विकास के समर्थक है लेकिन अपनी ग्रामीण संस्कृति की पहचान एवं आपसी सहयोग की परंपरा के साथ विकास को ही सही विकास मानने के पक्षधर रहे हैं. मोहम्मद इकबाल की यह पंक्तियां आज भी समीचीन हैं, इसलिए कि आज भी गांव में सुख दुख पड़ने पर एक दूसरे मे आपसी सहयोग दिखाई पड़ता है जो हमारी पहचान है.
यूनान ओ मिस्त्र रोमा सब मिट गए जहां से
अब तक मगर है बाकी नामो निशा हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमा हमारा
मोहम्मद इकबाल की लिखी यह पंक्तियां तभी सार्थक होगी जब हम अपनी ऐतिहासिक विरासत की अपनी पहचान आज भी बचाकर रखेंगे.
अपनी अलग-अलग बोली भाषा एवं सांस्कृतिक विरासत के देश भारतवर्ष के गांव में ऐतिहासिक संस्कृतियों की कहानियां यहां वहाँ बिखरी पड़ी है जिन्हे मोतियों को एक सूत्र में पिरोकर यदि गूथा जाए, तब यह स्वर्णमाला का स्वरूप ग्रहण कर सकती है .ऐतिहासिक गाथाओं की किवदंतियां एवं ग्रामीण आस्था तथा लोक कथाओं में शामिल मनेन्द्रगढ़ जिला मुख्यालय का खड़गवां ब्लॉक का चर्चित गांव देवाडांड़ से लगा मंगौरा ग्राम पंचायत के उत्तर पूर्वी दिशा में स्थित कोटेश्वर महादेव का भग्न मंदिर अपनी सैकड़ो साल की दास्तान की कहानी समेटे यहां स्थित है. हमारी ग्रामीण सांस्कृतिक यात्रा के विद्वान सहयोगी परमेश्वर सिंह ने जानकारी दी कि मनेन्द्रगढ़ से झगड़ाखांड लेदरी के रास्ते भौता तक 10 किलोमीटर की यात्रा तय करने के बाद बाये मुड़कर 25 किलोमीटर चलने के बाद देवाडांड़ तक पहुंचेंगे. वहीं से मंगौरा मंदिर तक पहुंचेगे. बैकुंठपुर से आने वाले पर्यटक खड़गवां पहुंचकर खड़गवां – बिलासपुर मार्ग के पोंड़ीडीह चौक से दाहिनी तरफ जरौधा कोरबा मार्ग को जोड़ने वाले हस्दो पुल को पार कर देवाडांड़ पहुंच सकते है. आदिवासी जनजातियों से भरे गांव मंगौरा के कोटेश्वर मंदिर जाने के लिए यहीं से सीधा कच्चा रास्ता है. मंगौरा मंदिर पहुंचने पर हमारी मुलाकात ग्राम निवासी जैलाल सिंह एवं बाबूलाल से होती है. देवाडांड़ के बाजार में ईश्वर सिंह से मुलाकात बड़ी सार्थक रही उन्होंने मंगौरा के इस कोटेश्वर मंदिर तक पहुंचने में हमारी सहायता की.
ईश्वर सिंह के साथ हम मंगौरा ग्राम के कोटेश्वर महादेव मंदिर के परिसर तक पहुंचते हैं पता चला गांव के अंदर से आने वाला मार्ग थोड़ा संकरा और कठिन मार्ग है लेकिन दूसरा रास्ता देवाडांड़ से मंदिर तक सीधा पहुंचता है. यह मार्ग अभी निर्माणधीन है. और गांव के बाहर बाहर चलता है. इसमें जल्दी ही एक ठोस सड़क का स्वरूप ग्रहण करने की संभावना दिखाई पड़ती है. मंगौरा के कोटेश्वर महादेव मंदिर के भग्न अवशेष अपनी कहानी स्वयं कहते हैं. एक छोटी पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर के ऊपरी हिस्से में पुराने मंदिर की नींव आज भी मजबूती के साथ यथावत खड़ी है जो इस मंदिर की नक्काशी एवं पत्थरों को तराशने तथा बिना किसी सीमेंट वगैरह के जोड़ने की कला का एक अद्भुत उदाहरण है, वही इस मंदिर के सैकड़ो वर्षो की प्राचीन धरोहर के निर्माण कर्ता स्थापत्य कला के साथ-साथ आस्था एवं सभ्यता की अनजान कहानी के पन्नों को समेटे चुपचाप खड़ा है. जिसे पढ़ने के लिए किसी विद्वान पुरातात्विक विशेषज्ञ या छत्तीसगढ़ पर्यटन एवं पुरातत्व विभाग के खोज एवं विकास की आवश्यकता है.
कोटेश्वर का तात्पर्य कोटि अर्थात करोड़ों करोड़ों के शामिल से है. लेकिन यहां मंदिर निर्माण हेतु तराशे गए भग्न टूटे हुए पत्थरों के सिवाय करोड़ की संख्या में कुछ भी नहीं है . भारतवर्ष के उत्तराखंड मे अलकनंदा तट पर तथा छत्तीसगढ़ के धमतरी के सिहावा पर्वत के जंगलों में भी कोटेश्वर महादेव मंदिर स्थित है. सिहावा के जंगलों की गुफा में जमीन की गहराइयों में स्थित महादेव मंदिर का अलौकिक दिव्य स्वरुप है. जहां पर्यटक नित्य पहुंच कर पूजा अर्चना करते हें लेकिन मंगौरा ग्राम के इस कोटेश्वर महादेव मंदिर में दैनिक पूजा नहीं होती है क्योंकि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में खंडित मूर्तियों की पूजा का विधान नहीं है. हाँ आने वाले पर्यटक अपनी आस्था के अनुसार इसे सिद्धि स्थल मानते हुए सिर झुकाकर नारियल बताशा चढा़कर आशीर्वाद जरुर लेते हैं. यहां सैकड़ो वर्ष पुरानी गणेश पार्वती एवं शिवलिंग की प्रतिमाएं है जो टूट चुकी हैं. भगवान शिव की सवारी नंदी एवं उनकी योगिनियों के कई मूर्तियां यहां विराजमान है. मंदिर के पत्थरों की नक्काशी बेहद खूबसूरत है जो उस समय के कलाकारों की कहानी खुद बयान करती है. मंदिर अवशेष के पत्थरों के ऊपरी भाग में एक चौरा बना हुआ है. जहाँ कुछ देवी मूर्तियां रखी गई है जिसमें देवी पूजा की चुनरी एवं चूड़ियां चढ़ाई गई थी. बाबूलाल जी से बातचीत में पता चला कि इस स्थान की प्राचीनता का कोई प्रमाणिक दस्तावेज अब तक की जानकारी में बुजुर्गों को नहीं है लेकिन इसे भी राजा धारमल शाह के 350 वर्ष पुराने समय काल का या किसी प्राचीन सभ्यता का निर्माण माना जाता है. वास्तविक जानकारी केवल पुरातात्विक विशेषज्ञ ही दे सकते हैं. गांव वाले नवरात्रि में यहां देवी पूजा करते हैं भग्न मूर्ति होने के कारण महादेव पूजन नहीं होता लेकिन बाहर से आने जाने वाले पर्यटक एवं अपनी अपनी आस्था के अनुसार यहां पहुंचने की कोशिश करते हैं . उन्होंने बताया कि बंगाल से आए एक दशरथ बाबा ने सबसे पहले यहां आकर मंदिर स्थल पर चौरा स्थल बनाकर इस मंदिर में लोगों को पूजा पाठ के लिए प्रोत्साहित किया किंतु कुछ वर्षों बाद वह भी यहां से चला गया तब से यह मंदिर उजाड़ पड़ा हुआ है .
मंगौरा के इस कोटेश्वर महादेव मंदिर की विशेषता यहां पत्थर के बने लगभग 30 किलो वजन के गगन मुंगरा की है जो कि उस समय के निवासियों के द्वारा मुगदर घूमाने और बलिष्ठ होने का परिचय देता है इसी प्रकार एक पत्थर पर शिलालेख मंदिर के दक्षिणी हिस्से में दूरी पर पाया गया है जिस पर पुरानी लिपि में कुछ लिखी कुछ जानकारी है जो अब क्षरण हो जाने के कारण पढ़ने में भी नहीं आ रहा है. प्राप्त जानकारी के अनुसार बहुत पहले इसकी जानकारी एवं फोटोग्राफ संस्कृति एवं पर्यटन विकास विभाग छत्तीसगढ़ को भेजा जा चुका है किंतु अभी तक कोई पहल नहीं होना चिंता का विषय.है. ऐसी ऐतिहासिक विरासत को ढूंढना एवं दस्तावेज सहित जानकारी एकत्र करके वर्तमान पीढ़ी को सौंपना हमारा राष्ट्रीय एवं नैतिक दायित्व है. जो हमारी सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पहचान की कहानी कहता है. यह देखा गया है कि महानगरों के आसपास पर्यटन हेतु छोटे-छोटे तालाब एवं झरनों को भी विकसित कर दिया जाता है किंतु चिंता की बात है कि ग्रामीण क्षेत्रों में इतने पुराने ऐतिहासिक धरोहरों के प्रति राज्य एवं केंद्र सरकारें चिंता नहीं करती. इन धरोहरों के संरक्षण में भी वर्तमान बाजारवाद दिखाई देता है.
मंगौरा कोटेश्वर मंदिर की किवदंतियों एवं आस्था के पश्नो का उत्तर देते हुए बाबूलाल ने सचेत करते हुए कहा कि आप यहां का कोई पत्थर अपने साथ मत ले जाइएगा क्योंकि यहां के हर पत्थर में महादेव भोलेबाबा की शक्ति विराजमान है जो भी इन पत्थरों मे से एक पत्थर भी चुराकर ले जाने की कोशिश किया है उसके परिवार का अनिष्ट हुआ है या पारिवारिक सदस्यों का अनिष्ट हुआ है. इसी प्रकार कोटेश्वर देवी मंदिर की आस्था के संबंध में उन्होंने बताया कि जिस घर में संतान नहीं होती है उसकी मनौती इस मंदिर मे मानने पर संतान होने की जानकारी भी मिली है लेकिन मनौती के बाद संतान सहित एक बार मंदिर पहुंचकर नारियल फोड़ कर आशीर्वाद लेना जरूरी है अन्यथा बच्चों पर अनिष्ट की संभावना बनी रहती है . कई लोग ऐसे भी थे जो अनजाने में यहां से कलाकृति वाले पत्थर को ले गए किन्तु अनिष्ट होने के बाद गांव वालों की समझाइश पर इस मंदिर तक पत्थर वापस पहुंचाया है और क्षमा याचना की है.
ग्रामीण आस्था का दोहन जनप्रतिनिधि एवं प्रशासन द्वारा किस तरह किया जाता है इसका एक उत्तम उदाहरण हमें इस कोटेश्वर मंदिर में देखने को मिला. गांव से बाहर इस स्थल पर एक बोर्ड में पाँच लाख बत्तीस हजार 532000 का सोलर लाइट का पोल लगाया गया है जो वर्तमान में बंद है.और टूटा पड़ा है, क्योंकि यहां बहुत कम लोग आते हैं इसलिए इसकी ओर कोई ध्यान नहीं देता. इसे यदि गांव के चौराहे पर लगाया गया होता तब उसका ज्यादा उपयोग हो पाता एवं संरक्षण भी हो सकता था. . इसी तरह दो-दो लाख के दो सांस्कृतिक कार्यक्रम मंच बने हैं जो नवरात्रि पूजा के समय शायद काम आते होंगे. इसमें से एक प्रशासन द्वारा तथा दूसरा सांसद मद से बनाया गया है. चिंता का विषय यह है कि इस ऐतिहासिक विरासत के मंदिर की व्यवस्था एवं मंदिर निर्माण, इसके पुनरुत्थान की कोई ठोस योजना या पहल शासन प्रशासन एवं जनप्रतिनिधियों के द्वारा अब तक दिखाई नहीं पड़ती है. स्थानीय पंचायत भी इसकी प्राचीनता के संबंध में या मंदिर के सामने एक कोटेश्वर महादेव मंदिर का बोर्ड लगाने इसे संवारने और पर्यटन स्थल विकसित करने के प्रति अब तक उदासीन दिखाई पड़ती है.
रहस्य रोमांच एवं शोध परक ऐतिहासिक जानकारी के अबूझ पन्नो की किताब में शामिल ईश्वरीय शक्ति के सिद्धस्थलों के प्रति हमारी आस्था हमेशा हमारा मार्ग प्रशस्त करती रही है और करती रहेगी. हमारा विश्वास है कि आस्था की डोर के साथ यदि आप भी कोटेश्वर महादेव मंदिर मंगौरा आएंगे तब पर्यटन के साथ-साथ इस कोटेश्वर महादेव के सिद्ध स्थल में आपकी भी मनोकामना पूर्ण होगी.
राजेश सिन्हा- 8319654988